Thursday, July 26, 2007

भाषा नहीं नस्ल

अंग्रेजों ने भारतीयों का वर्गीकरण इस तरह किया कि वे आर्य होने का दावा भी नहीं कर सके. बताया गया कि आर्य जो मध्य एशिया से होकर भारत आये, अब कुछ ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों के रूप में ही शेष हैं. इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों में भी कुछ ही आर्य हैं. दरअसल इस धारणा के पीछे कोई पुख्ता तथ्य नहीं है कि कि नस्लवाद जर्मनी की देन है. नात्सी दर्शन के आरंभिक उद्गारों से बहुत पहले अंग्रेज इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों और लेखकों ने मानव विकास और विश्व इतिहास को नस्लवादी चश्मे से देखने की शुरूआत कर दी थी. राबर्ट नाक्स उन्नीसवीं सदी के एक ब्रिटानी वैज्ञानिक थे. लेकिन उनकी असली भूमिका मानव इतिहास को नस्लवादी आधार देने में है. इसी अवधारणा में एंग्लो-सेक्सन जाति को ऊंचा स्थान दिया गया है. उनके अनुसार "मानव इतिहास में नस्ल ही सबकुछ है." एंग्लों-सेक्सन के बारे में वे कहते हैं कि उन्हें इस पृथ्वी पर एकमात्र शुद्ध जाति माना जा सकता है. इस शुद्ध जाति के अस्तित्व को बचाये रखने के लिए वे नुख्सा सुझाते हैं कि "जिस तरह हम यहां (आष्ट्रेलिया में) गायों को मारते हैं उसी तरह बेफिक्र होकर स्थानीय लोगों को मारा जा सकता है. इस तरह धीरे-धीरे इनकी आबादी कम हो जाएगी." नाक्स की इस सोच को चार्ल्स किंग्सले और थामस कार्लाईल जैसे लेखकों का भी समर्थन मिलता है. किंग्सले ईसाई-राजतंत्र और साम्राज्य का समर्थन करते हैं तो कार्लाईल निग्रो को मनुष्य केवल इसलिए मानते हैं क्योंकि उसके पास भी आत्मा है. अन्यथा उसे जीने का भी हक नहीं है.

इस तरह नस्ली अवधारणा को स्थापित करने से यह बात अपने आप स्थापित हो जाती है कि किसी विशेष नस्ल की शारीरिक और बौद्धिक क्षमता के बिना सभ्यता का विकास नहीं हो सकता. यानि मास्टर रेस की जर्मन अवधारणा केवल जर्मन आविष्कार नहीं थी. उसके लिए अंग्रेज पहले ही पृष्ठभूमि तैयार कर चुके थे. अब केवल यह तय करना था कि यह मास्टर रेस आयी कहां से?

आर्य शब्द अंग्रेजों और जर्मनों को उपयुक्त लगा लेकिन जहां के साहित्य से वह शब्द आया था उसे आर्यों का मूल देश बताना खतरनाक था. जर्मनों को इससे कोई खास फर्क इसलिए नहीं पड़ता था क्योंकि वे पहले ही बाईबिल में संशोधन चाहते थे. लेकिन अंग्रेजों के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न था. हम पहले देख चुके हैं कि "काकेसस" पर्वतों का सुझाव पहले ही दिया गया था. इसीसे भारोपीय जातियों का नाम काकेसियन भी चल पड़ा था. यह भी बताया गया कि वह शुद्ध आर्य नस्ल जार्जियन थी. यह विचार काफी समय तक यूरोपीय विद्वानों पर छाया रहा. एच क्लार्क लिखते हैं - "यह प्रमुख जाति पैलियो-जार्जियन भाषा बोलती थी. इस नस्ल के लोग अब पुष्ट शारीरिक आकार के काकेसियन लोग हैं जो जार्जियन भाषा बोलते हैं."

भारत पर लिखनेवाले सभी पाश्चात्य इतिहासकारों के लिए अब यह निर्विवाद तथ्य बन गया था कि भारत पर आर्यों ने आक्रमण किया था. इन काकेसियन ने पहले भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया फिर फारस और मीडिया में. विलियम जोन्स ने आर्यों को भाषा के आधार पर स्थापित करना चाहा और मैक्समूलर ने भी यहीं से आरंभ किया. लेकिन अंग्रेजी सत्ता को स्थापित करने के लिए केवल भाषा का उपकरण पर्याप्त नहीं था. उसके लिए नस्ल का उपयोग आवश्यक था. आर्यों को एक नस्ल के रूप मे स्थापित करने का दबाव इतना बढ़ गया कि मैक्समूलर भी अपने तर्कों से डगमगाने लगे. उन्होंने कहा था "जब हम आर्यों की बात करते हैं तो हमारा आशय सिर्फ यह बताना होता है कि वे एक विशेष भाषा बोलते थे. जहां तक उनकी अन्य पहचान का सवाल है तो उसमें न हमारा कोई आग्रह है और न संकेत, जब तक कि हमें दूसरे स्रोतों से स्पष्ट प्रमाण नहीं मिल जाते."लेकिन इसके बावजूद उन्होंने आर्य और अनार्य का विभाजन किया.

यह स्थापित किया गया कि एक शक्तिशाली गौरवर्णीय जाति भारत में बाहर से आयी. लेकिन कहां से? यह महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि आर्यों को एक शक्तिशाली आदिम नस्ल बतानेवालों को भी नहीं मालूम. अभी तक पंद्रह स्थानों को आर्यों की जन्मस्थली बताया जा चुका है जिसमें एशिया माइनर, मध्य एशिया, दक्षिणी रूस, उत्तरी जर्मनी, हंगरी आदि शामिल हैं. फिर भी वे आये बाहर से और जब वे भारत में आये तो यहां कम से कम दो उन्नत सभ्यताएं थीं. एक को द्रविण सभ्यता कहते थे और दूसरे को सिन्धु घाटी सभ्यता. और क्योंकि आर्यों का पहला टकराव सिंधुघाटी वाली सभ्यता के लोगों से हुआ इसलिए उन्होंने मूल सभ्यताओं को कुचल डाला. लेकिन समस्या इतने से ही नहीं सुलझती थी. अंग्रेजों के लिए हड़प्पा की खोज ने एक बड़ी समस्या पैदा कर दी. अब तक तो यही कहा जा रहा था कि श्रेष्ठ मानवजाति आर्यों ने दक्षिण और पूर्व की सभ्यताएं विकसित की. लेकिन वेदपूर्व के आर्यों की श्रेष्ठता को चुनौती देने कि लिए एक और जाति या नस्ल यहां उपस्थित थी. पहले दौर में वे मूल भारतीय माने गये लेकिन बाद में उन्हें भी बाहर से आया घोषित कर दिया गया.

हड़प्पीय भाषा का विश्लेषण नहीं किया जा सका है फिर भी विद्वानों ने सिंधु घाटी क्षेत्र में प्राप्त खोपड़ियों आदि से निष्कर्ष निकालने का प्रयास किया कि वे शायद साइथियन थे जो आर्यों से पहले रूस की तराईयों से यहां आये थे. द्रविड़ो के लिए यह तर्क तो पहले ही दिया जा चुका था. राबर्ट काल्डवेल लिखते हैं "द्रविड़ो ने आर्यों, ग्रीकों-साइथियन और तुर्की-मंगोल जातियों की तरह उत्तर पश्चिम मार्ग से भारत में प्रवेश किया था. द्रविण साईथियाई हैं लेकिन उनमें बहुत प्राचीन काल में ही भारोपीय मिश्रण हुआ है." इसके बाद भारतीय लोगों के नृवंशीय वर्गीकरण करने की प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गयी. केवल आर्यों में ही अनेक नस्लें नहीं खोजी गयीं अपितु द्रविड़ो को भी आधा दर्जन नस्लों में बांटा गया. एचएच रिसले ने इस दिशा में काफी काम किया लेकिन उन्होंने इस काम के पीछे की मंशा भी कभी नहीं छिपाई. रिसले के ही समकालीन राबर्ट कास्ट ने लिखा है- " अब भारतीय जातियों और उपजातियों का गजेटियर बनाने की आवश्यकता है जिसमें ब्रिटिश इंडिया में रहनेवाली जातियों के मतभेदों को स्पष्ट किया जा सके. इसमें बहुत से लाभ हैं. जातियों की यह पंचायत एक अच्छे शासक के काम की वस्तु है. धर्म और भाषा का भेद भले ही कितना बड़ा हो जाति भेद से अधिक नहीं होते. मुझे यह जानकर खुशी होती है कि भारतीय जनजातियों का सर्वेक्षण होने की संभावना है. इसमें पुरानी रोमन कहावत ठीक बैठती है कि डिवाइड एट एम्परा (बांटो और शासन करो.)

Tuesday, July 24, 2007

हमारी राष्ट्रीयता का आधार

जवाहर लाल कौल
वरिष्ठ पत्रकार

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक नया शब्द है जो आजकल सार्वजनिक चर्चा का विषय बना हुआ है. कुछ दशकों से हिन्दुत्व शब्द भी हमारी सामाजिक एवं राजनीतिक शब्दावली में शामिल हो चुका है. हिन्दुत्व का मर्म एक सांस्कृतिक अवधारणा हो सकती है लेकिन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से ऐसा प्रतीत होता है कि शायद राष्ट्रवाद हमारे लिए अपर्याप्त अवधारणा है. आखिर राष्ट्रवाद में सांस्कृतिक शब्द जोड़ने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? क्या राष्ट्रवाद की हमारी अवधारणा कमजोर है जो हमें इसके साथ सांस्कृतिक शब्द जोड़ना पड़ रहा है? विश्व के अन्य राष्ट्रों की तुलना में हमारी अवधारणा किस रूप में भिन्न या अस्पष्ट है?

कुछ उदाहरण आपके सामने रखता हूं. यहूदियों की मान्यता है कि मूसा को ईश्वर ने उनकी जाति के लिए एक विशेष भूमि देने का वादा किया था. हालांकि मूसा अपने जीवनकाल में यह सपना सच होते नहीं देख सके लेकिन मूसा ने यह सपना अपने अनुयायियों को सौंप दिया. 3000 साल तक मूसा के अनुयाईयों ने इस सपने को पाला-पोसा और आखिर में उस सपने को सच कर दिया. इजरायल बना तो केवल यहूदियों को ही स्थान नहीं मिला मूसा का वह वचन सत्य हुआ जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें ईश्वर विशेष भूमि देगा. देवभूमि है तो देवभाषा की भी जरूरत है सो हिब्रू देवभाषा बन गयी. इससे एक स्पष्ट होती है कि धर्म, भाषा, जाति या नस्ल तीनों तत्वों के आधार पर इजरायली राष्ट्र राज्य की नींव डाली गयी. अब यहूदियों के "शत्रु" जर्मनों की राष्ट्र-राज्य की अवधारणा क्या है? जर्मन जाति को भी ऐसे राष्ट्र राज्य की तलाश थी जो उसे अन्य यूरोपीय जातियों-राष्ट्रों से अलग और श्रेष्ठ दिखाये. वे उस यहूदी-ईसाई प्रारूप से कतई सहमत नहीं थे जो जिसके अनुसार मनुष्य जाति पश्चिम में ही पैदा हुई थी और उसके पूर्वज यहूदी थे. जर्मन यूरोपीय तो रहना चाहते थे लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था उनको सह्य नहीं थी जिससे यहूदी उनके पूर्वज साबित हो जाएं. इसलिए यहूदी रहित पहचान के लिए उनका ध्यान भारत की ओर गया. अठारहवी शताब्दी में जे जी हर्डर ने भारत के प्रति जर्मनों में आग्रह पैदा किया और कहा कि भारत ही सभ्यता की जननी है. भारत के बाहर पहली बार तभी भारत माता (मदर इंडिया) शब्द का प्रयोग किया गया था. और जर्मनों को अपने वंशज आर्य भारत में मिल गये.

विलियम जोन्स द्वारा प्रतिपादित भारोपीय भाषा परिवार की धारणा आर्यों का आविष्कार और भाषा तथा नस्ल का अंतरसंबंध- इन सभी धारणाओं का जन्म लगभग एक ही समय में होता है. जोन्स से पहले ही भाषाओं को सेमेटिक और गैर-सेमेटिक वर्गों में बांटा जा चुका था. लेकिन जोन्स की अवधारणा संस्कृत, लैटिन और ग्रीक के संबंधों पर आधारित थी. इसलिए जर्मन राष्ट्रवादियों में इसे लेकर उत्साह पैदा हो गया. जर्मन विद्वान एफ शेलिगल ने इसे तुरंत भाषा परिवार की एक धारणा को नस्ल का पुट दे दिया. आर्य शब्द प्रचलित हो गया. आरम्भ में भारत के साथ अपने पैतृक संबंधों को स्थापित करने के लिए इंडो-जर्मन शब्द बनाया गया था लेकिन बाद में उसे बदल कर इंडो-यूरोपीयन कर दिया गया. यानि जो अवधारणा आरंभ में भाषा-शास्त्रीय थी अचानक नस्लवादी बन गयी. (जारी)

Monday, July 23, 2007

दुनिया किसकी मुट्ठी में?

एक थे सेसिल रोड्स. अफ्रीका में हीरे की खानों को बड़ी युक्ति से उन्होंने कब्जा कर लिया था. उनके काम को देखते हुए एक देश का नाम रोडेशिया रखा गया था जो आजकल जिम्बाबवे के नाम से जाना जाता है. आप लोगों ने अगर हीरा कंपनी डी-बियर्स का नाम सुना हो तो यह भी जान लीजिए कि इस डी-बियर्स कंसालिडेटेड माईन्स एण्ड गोल्डफील्ड की स्थापना सेसिल रोड्स ने ही की थी. 1890 के दशक में रोड्स अमीरों के अमीर थे. उस समय उनकी आमदनी 10 लाख डॉलर यानि एक मिलियन डॉलर सालाना थी जो कि आज भी किसी अमरीकी के लिए बहुत बड़ी रकम होती है. रोड्स अमीरी के लिए पैसे नहीं कमाता था. उसका एक सपना था.
उसका सपना था कि हमें कुछ ऐसी रणनीति विकसित करनी चाहिए कि दुनिया पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थायी रूप से कायम हो सके. उसका मानना था कि इसके लिए हमें बहुत लंबी रणनीति के तहत काम करना होगा. और उसने यह किया भी.उसने आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में छात्रवृत्ति देकर लोगों को पढ़ने के लिए आमंत्रित करना शुरू किया. उसका मानना था कि दुनिया में कहीं भी प्रतिभा हो तो उसका उपयोग साम्राज्य विस्तार में करना चाहिए. उसने एक राउण्ड टेबल की स्थापना की थी जो आज भी काम कर रही है. यह राउण्ड टेबल दुनिया के वर्तमान की समीक्षा और भविष्य को तय करती है. आज दुनिया की तथाकथित बड़ी-बड़ी संस्थाएं जो दुनिया पर नियंत्रित कर रही हैं उनमें से अधिकांश राउण्ड टेबल के दिमाग की उपज हैं. राउण्ड टेबल की स्थापना के बाद रॉथचाईल्ड कारपोरेशन, कार्नेगी युनाईटेड किंगडम ट्रस्ट, रॉकफेलर फाउण्डेशन, फोर्ड फाउण्डेशन, जे पी मार्गन, हिटनी परिवार, लेजार्ड ब्रदर्स आदि महत्वपूर्ण घराने इसके सदस्य बनते चले गये. अमेरिका की प्रितिष्ठित येल यूनिवर्सीटी में एक विभाग था स्कल एण्ड बोन सोसायटी. यह सोसायटी गुप्त रूप से राउण्ड टेबल के लिए काम करती थी.रोड्स तो कब के मर गये लेकिन राउण्ड टेबल जिन्दा है.
राउण्ड टेबल की कारगुजारियों और योजनाओं पर एक किताब है जिसका नाम है- द प्रिजन. इस किताब में राउण्ड टेबल का पूरा इतिहास और आगे की कारगुजारियों के बारे में विस्तार से लिखा गया है. किताब बताती है कि राउण्ड टेबल दुनिया को मुट्ठी में करने के लिए युद्ध को आवश्यक हथियार मानती है. इसकी शुरूआत 1899 से होती है जब दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध की शुरूआत हुई थी. 13 साल चले इस युद्ध में अफ्रीका तबाह हुआ और वहां की प्राकृतिक संपदा अंग्रेजों के हाथ में चली गयी. वहां के लोग अपने ही देश में गुलाम बन गये. कुछ-कुछ वैसा ही जैसा हाल में ही इराक में हुआ है. पहले और दूसरे विश्वयुद्ध की व्यूह-रचना में भी इसी राउण्ड टेबल की सोच काम कर रही थी. आज राउण्ड टेबल कोई संस्था नहीं है, यह एक सोच है जो संस्थाओं को जन्म देती है. इसने बहुत सी संस्थाओं को जन्म दिया है. दुनिया की सबसे बड़ी संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 26 जून 1946 को जिस अधिनियम के तहत की गयी थी वह अधिनियम गोलमेज के काउंसिल आफ फारेन रिलेशन्स के तहत आता था. गोलमेज की मंशा साफ थी कि दुनिया पर नियंत्रण करना है तो ऐसी कोई संस्था होनी चाहिए जो छद्म आजादी के नाम पर हमारी योजनाओं को पूरी दुनिया में लागू करवा सके.द प्रिजन में विलियम एच मैकहनी लिखते हैं - संयुक्त राष्ट्र की योजना पूरी तरह वैश्विक नियंत्रण की है. इसके लिए यहां साम-दाम-दंड-भेद सभी नीतियों का इस्तेमाल किया जाता है. यह विश्व सरकार जीवन के हर क्षेत्र में नियंत्रण के लिए जनसंख्या नियंत्रण, विज्ञान और तकनीकि, स्वास्थ्य, शस्त्र और सैनिक नियंत्रण, शिक्षा आदि सभी क्षेत्रों के लिए नीतियां बनाती और लागू करवाती है.
गोलमेज समुदाय के लोग संयुक्त राष्ट्र के माध्यम से दुनिया में यह मानसिकता विकसित करना चाहते हैं कि देश के लोगों का अपने शासन-प्रशासन से धीरे-धीरे विश्वास खत्म हो जाए. (इस बात को ठीक से समझने के लिए आप संयुक्त राष्ट्र शांति सेना, संयुक्त राष्ट्र के स्वास्थ्य और शिक्षा मिशन का उदाहरण ले सकते हैं). एक बार लोगों का स्थानीय लोक प्रशासन से विश्वास उठ जाएगा तो दुनिया में एक केन्द्रीय सेना, केन्द्रीय सरकार, केन्द्रीय अर्थतंत्र के बारे में लोगों का विरोध समाप्त हो जाएगा.इसी सोच को पुख्ता करने के लिए विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश, एमनेस्टी इंटरनेशनल, वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन, यूनेस्को, यूएनडीपी, मानवाधिकार से जुड़े संगठन, गैर-सरकारी संगठन आदि बनाये गये हैं. आज भारत में ही विकास की कई योजनाओं पर काम करनेवाली संस्थाओं को फोर्ड फाउण्डेशन पैसा देता है. यह फोर्ड फाउण्डेशन गोलमेज समुदाय का सक्रिय सदस्य है. इस गोलमेज समुदाय का हाल के दिनों में सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था गैट की स्थापना. गोलमेज समुदाय की एक संस्था बिल्डबर्ग की एक बैठक 1991 में वाडेन, जर्मनी में हुई थी. इस बैठक में डेविड रॉकफेलर, कई प्रमुख प्रशासनिक अधिकारी, राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, एक अमेरिकी प्रांत के गवर्नर बिल क्लिंटन, तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश, नीदरलैण्ड की रानी बीट्रीक्स, स्पेन की रानी सोफिया, ब्रिटेन की ओर से जॉन स्मिथ आदि मौजूद थे. इसी बैठक में जार्ज बुश ने इराक के खिलाफ युद्ध का खुलासा किया था. इसके बाद निर्णय हुआ कि युद्ध के बाद वहां संयुक्त राष्ट्र सेना नियुक्त कर दी जाएगी. वहां उपस्थित सभी लोगों ने जार्ज बुश सीनियर की योजना को सही ठहराया और संयुक्त राष्ट्र से बात करने का प्रस्ताव किया. इस बैठक में और नामों के अलावा एक नाम पीटर डी सदरलैण्ड का भी था. सदरलैण्ड इस बैठक के बाद गैट के डायरेक्टर जनरल बन गये. बिल्डरबर्ग की अगली बैठक 1994 में फिनलैण्ड में हुई. गैट की सफलता को नये आयाम देने के लिए व्यापार को और प्रभावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की रणनीति पर काम शुरू हुआ. 1995 में स्विटजरलैण्ड में कई गोपनीय बैठकों के बाद आखिरकार वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाईजेशन का चेहरा दुनिया के सामने आ गया. आज भारत में जिस डब्ल्यूटीओ का गुणगान किया जाता है और जिसकी शर्तों की दुहाई देकर व्यापारिक नीतियों को बड़े पैमाने पर उलट-पुलट दिया गया उसके जन्म की कहानी यह है कि वह दुनिया की अर्थव्यवस्था को अपनी मुट्ठी में लेने के लिए अस्तित्व में आया था.द प्रिजन में मैकहनी लिखते हैं - आईएमएफ की यह जिम्मेदारी है कि वह अफ्रीका, एशिया और दुनिया के दूसरे विकासशील देशों को "सभ्य" समाज में शामिल करने के लिए धन का वितरण करे.
इसी रणनीति पर काम करते हुए आईएमएफ ने पूरी दुनिया के गरीब मुल्कों में घूसखोरी का सहारा लेकर वहां राजनीतिज्ञों को खरीद लिया. उसने ऐसी नीतियां बनवाने में कामयाबी हासिल कर ली कि गरीब मुल्क अपनी जमीन पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आने दें. यहां खेती की ऐसी विधि विकसित की जा रही है जो नकद आमदनी देनेवाली हो. इस पैसे से वह अपने लिए जरूरत के सभी सामान अमीर मुल्कों से आयात करेगा. इससे दोहरा फायदा है. गरीब देश केवल अमीर मुल्कों के लिए निर्यातक बनकर रह जाएंगे और इस निर्यात से जो पैसा मिलेगा उससे फिर वे उन्हीं अमीर मुल्कों से जरूरत का सामान खरीदेंगे. इस तरह अमीर मुल्क दोनों ओर से फायदे में हैं. वे बड़ी चालाकी से दुनिया की सारी प्राकृतिक संपदा का इस्तेमाल अपने ऐशो-आराम के लिए कर रहे हैं और गरीब मुल्कों पर उनकी संप्रभुता भी कायम है.