Tuesday, July 24, 2007

हमारी राष्ट्रीयता का आधार

जवाहर लाल कौल
वरिष्ठ पत्रकार

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एक नया शब्द है जो आजकल सार्वजनिक चर्चा का विषय बना हुआ है. कुछ दशकों से हिन्दुत्व शब्द भी हमारी सामाजिक एवं राजनीतिक शब्दावली में शामिल हो चुका है. हिन्दुत्व का मर्म एक सांस्कृतिक अवधारणा हो सकती है लेकिन सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से ऐसा प्रतीत होता है कि शायद राष्ट्रवाद हमारे लिए अपर्याप्त अवधारणा है. आखिर राष्ट्रवाद में सांस्कृतिक शब्द जोड़ने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी? क्या राष्ट्रवाद की हमारी अवधारणा कमजोर है जो हमें इसके साथ सांस्कृतिक शब्द जोड़ना पड़ रहा है? विश्व के अन्य राष्ट्रों की तुलना में हमारी अवधारणा किस रूप में भिन्न या अस्पष्ट है?

कुछ उदाहरण आपके सामने रखता हूं. यहूदियों की मान्यता है कि मूसा को ईश्वर ने उनकी जाति के लिए एक विशेष भूमि देने का वादा किया था. हालांकि मूसा अपने जीवनकाल में यह सपना सच होते नहीं देख सके लेकिन मूसा ने यह सपना अपने अनुयायियों को सौंप दिया. 3000 साल तक मूसा के अनुयाईयों ने इस सपने को पाला-पोसा और आखिर में उस सपने को सच कर दिया. इजरायल बना तो केवल यहूदियों को ही स्थान नहीं मिला मूसा का वह वचन सत्य हुआ जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्हें ईश्वर विशेष भूमि देगा. देवभूमि है तो देवभाषा की भी जरूरत है सो हिब्रू देवभाषा बन गयी. इससे एक स्पष्ट होती है कि धर्म, भाषा, जाति या नस्ल तीनों तत्वों के आधार पर इजरायली राष्ट्र राज्य की नींव डाली गयी. अब यहूदियों के "शत्रु" जर्मनों की राष्ट्र-राज्य की अवधारणा क्या है? जर्मन जाति को भी ऐसे राष्ट्र राज्य की तलाश थी जो उसे अन्य यूरोपीय जातियों-राष्ट्रों से अलग और श्रेष्ठ दिखाये. वे उस यहूदी-ईसाई प्रारूप से कतई सहमत नहीं थे जो जिसके अनुसार मनुष्य जाति पश्चिम में ही पैदा हुई थी और उसके पूर्वज यहूदी थे. जर्मन यूरोपीय तो रहना चाहते थे लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था उनको सह्य नहीं थी जिससे यहूदी उनके पूर्वज साबित हो जाएं. इसलिए यहूदी रहित पहचान के लिए उनका ध्यान भारत की ओर गया. अठारहवी शताब्दी में जे जी हर्डर ने भारत के प्रति जर्मनों में आग्रह पैदा किया और कहा कि भारत ही सभ्यता की जननी है. भारत के बाहर पहली बार तभी भारत माता (मदर इंडिया) शब्द का प्रयोग किया गया था. और जर्मनों को अपने वंशज आर्य भारत में मिल गये.

विलियम जोन्स द्वारा प्रतिपादित भारोपीय भाषा परिवार की धारणा आर्यों का आविष्कार और भाषा तथा नस्ल का अंतरसंबंध- इन सभी धारणाओं का जन्म लगभग एक ही समय में होता है. जोन्स से पहले ही भाषाओं को सेमेटिक और गैर-सेमेटिक वर्गों में बांटा जा चुका था. लेकिन जोन्स की अवधारणा संस्कृत, लैटिन और ग्रीक के संबंधों पर आधारित थी. इसलिए जर्मन राष्ट्रवादियों में इसे लेकर उत्साह पैदा हो गया. जर्मन विद्वान एफ शेलिगल ने इसे तुरंत भाषा परिवार की एक धारणा को नस्ल का पुट दे दिया. आर्य शब्द प्रचलित हो गया. आरम्भ में भारत के साथ अपने पैतृक संबंधों को स्थापित करने के लिए इंडो-जर्मन शब्द बनाया गया था लेकिन बाद में उसे बदल कर इंडो-यूरोपीयन कर दिया गया. यानि जो अवधारणा आरंभ में भाषा-शास्त्रीय थी अचानक नस्लवादी बन गयी. (जारी)

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